The Unending struggle for Hindi Journalism | Patna Diaries

पत्रकारिता की चकाचौंध, पत्रकारों जैसा रुतबा का कौन कायल नही रहता?

पूरे भारत में हर दूसरा आदमी ये बात जानता है कि पत्रकारों के पास पावर है। ‘प्रेस’ में काम करना एक गौरव की बात होती है और हो भी क्यों ना लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को संभालना हर इंसान के किस्मत में कहाँ?

पत्रकार होना जितना अच्छी बात है उससे कई ज्यादा कठनाई भरी राह है हिंदी पत्रकारिता की। ये बातें जो मैं कहूंगा वो ना सिर्फ़ मेरा व्यक्तिगत अनुभव है हिंदी पत्रकारों के साथ बल्कि सामान्य ज़िंदगी में घटने वाली घटनाओं पर भी आधारित है।

Hindi Journalism
जैसे उदाहरण के तौर पर देखिए तो हाल में झारखंड के नामी पत्रकार रवि प्रकाश जी को जब फोर्थ स्टेज लंग कैंसर हुआ तो उनके एकाउंट में केवल 15 हजार के आस-पास रुपये थे। डेढ़ दशक से हिंदी पत्रकारिता कर रहे रवि प्रकाश जी को क्राउड फंडिंग की जरूरत पड़ गयी। कितनी अजीब बात है कि नामी पत्रकार जो बिना किसी दोमत के शक्तिशाली होंगे उन्हें क्राउड फंडिंग की जरूरत पड़ गयी। सवाल ये नही है कि क्राउड फंडिंग ठीक या गलत! सवाल ये है कि आखिर जरूरत ही क्यों पड़ी?

 

ये बात जगज़ाहिर है कि एक आम ईमानदार हिंदी पत्रकार अपनी ज़िंदगी का महत्वपूर्ण हिस्सा बहुत कम तनख़्वाह में गुजारता है।

भले ही वो आगे उन्नति पाकर बड़े पद पर जाए और तनख़्वाह थोड़ी ठीक मिले पर उस वक़्त वो उस दौर में नही रह पाता जब उसकी आर्थिक जरूरतें बहुत ज्यादा थी। इसमें भी अड़चन ये है कि बहुत पत्रकार उन्नति नही पाते तो नतीजा उन्हें पूरी ज़िंदगी ऐसे ही गुजारनी पड़ती है। फ्रीलांसर पत्रकारों की हालत तो और दयनीय है। इन्हें हिंदी में एक स्टोरी का अंग्रेजी के मुकाबले बहुत ही कम पैसा मिलता है। हमारी मातृभाषा में स्टोरी करना एक फ्रीलांसर के लिए गर्व की बात ज़रूर होगी पर आर्थिक रूप से ये उनको नही जमता। पर बहुत हैं जो किये जा रहे हैं। अगर आप उनके पोस्ट को पढेंगे तो बहुत सी बातों में उनका दर्द छलकता है।

पत्रकारिता में केवल आर्थिक रूप ही अड़चन नही है। पत्रकारिता के क्षेत्र में जातिवाद का बोलबाला है।

बहुत से संस्थान में कोई एक जाति या क्षेत्र का बोलबाला रहता है और अन्य के मुकाबले उस जाति या क्षेत्र से ताल्लुक़ रखने वाले पत्रकार बेहद फायदे में रहते हैं। उन्हें संस्थान से सहयोग, अन्य के बदले कम दबाव और जल्दी उन्नति मिलती है। बहुत से संस्थानों पर तो खुला इल्ज़ाम लगता है कि वो अन्य जातियों पर इतना दबाव डालते हैं कि या तो वे नौकरी छोड़ देते हैं या मानसिक परेशानी का सामना करते हैं। मुझे याद है एक बार एक पत्रकार से मैनें बात-चीत की थी जो कि एक बहुत बड़े विश्व्यापी हिंदी पत्रकारिता के संस्थान की नौकरी छोड़कर आये थे। उनसे बात-चीत में मैनें जाना कि उन्हें वहां कितनी दिक्कतों का सामना करना पड़ा था। उनकी आय बेहद कम थी और उनपर खूब दबाव भी बनाया जाता था। ये बात तो साफ़ है कि बहुत से मीडिया संस्थान मानसिक स्वास्थ्य को सीरियस नही लेते। वो अपने पत्रकार पर काम का इतना दबाव बनाते हैं कि वो सुबह से रात तक केवल अख़बार या न्यूज़ चैनल को ही देता है। उसके परिवार को उनका समय बिल्कुल नही मिल पाता। ऊपर से इतनी कम आय कि ठीक से गुजारा हो जाये ये भी बड़ी बात है।

अब बात उठती है कि जिस तरह से पत्रकारिता का क्रेज़ तेजी से बढ़ रहा है उस तरह से लोगों को साफ़ देखना होAakasj Bhardwaj | Patna Diariesगा कि हो क्या रहा है और सुधार के विकल्प तलाशने होंगे। हिंदी पत्रकारिता में सुधार जितनी जल्दी हो उतना ही अच्छा है। अंग्रेजी में भी दिक्कतें हैं पर वो अपने पत्रकारों पर हिंदी के मुकाबले ज्यादा आय और कम दबाव देते हैं। मैनें ऐसे बहुत पत्रकारों से बात कि जो आज महीने के दूसरे हफ़्ते से ही आर्थिक दिक्कतों का सामना करने लगते हैं। अब सवाल उठता है कि इतनी मेहनत के बाद उनके साथ ये सुलूक किस हद तक सही है! क्या हम उनके बारे में बात कर रहे हैं? अगर हां तो कहाँ और अगर नही तो करनी पड़ेगी। वरना कल के समय कोई मां- बाप अपने बच्चे को पत्रकार नही बनाना चाहेगा।

लेखक के बारे में :

इक उदास मैं रहा छुपा अंदर मिरे,
यूँ कहो कि मैं कभी तराशा ना गया।